लघु पत्रिका (लिटिल मैगजीन) आन्दोलन मुख्य रूप से पश्चिम में प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) के औजार के रूप में शुरू हुआ था. यह प्रतिरोध राज्य सत्ता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद या धार्मिक वर्चस्ववाद– किसी के भी विरुद्ध हो सकता था. लिटिल मैगजीन आन्दोलन की विशेषता उससे जुडे लोगों की प्रतिबद्धता तथा सीमित आर्थिक संसाधनों में तलाशी जा सकती थी. अक्सर बिना किसी बडे औद्योगिक घराने की मदद लिये बिना, किसी व्यक्तिगत अथवा छोटे सामूहिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप निकलने वाली ये पत्रिकायें अपने समय के महत्वपूर्ण लेखकों को छापतीं रहीं हैं. भारत में भी सामाजिक चेतना के बढने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लघु पत्रिकायें प्रारम्भ हुयीं. 1950 से लेकर 1980 तक का दौर हिन्दी की लघु पत्रिकाओं के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण रहा. यह वह दौर था जब नई- नई मिली आजादी से मोह भंग शुरू हुआ था और बहुत बडी संख्या में लोग विश्वास करने लगे थे कि बेहतर समाज बनाने में साहित्य की निर्णायक भूमिका हो सकती है. बेनेट कोलमैन & कम्पनी तथा हिन्दुस्तान टाइम्स लिमिटेड की पत्रिकाओं-धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बनी, दिनमान, और माधुरी जैसी बडी पूंजी से निकलने वाली पत्रिकाओं के मुकाबले कल्पना, लहर, वाम, उत्तरार्ध, आलोचना, कृति, क ख ग, माध्यम, आवेश, आवेग, संबोधन, संप्रेषण, आरम्भ, ध्वज भंग , सिर्फ , हाथ, कथा, नई कहानियां, कहानी, वयं, अणिमा जैसी पत्रिकायें निकलीं जो सीमित संसाधनों , व्यक्तिगत प्रयासों या लेखक संगठनों की देन थीं. इन पत्रिकाओं का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद विरोध था और ये शोषण, धार्मिक कठमुल्लापन, लैंगिक असमानता, जैसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध खडी दिखायीं देतीं थीं. एक समय तो ऐसा भी आया जब मुख्य धारा के बहुत से लेखकों ने पारिश्रमिक का मोह छोडकर बडी पत्रिकाओं के लिये लिखना बन्द कर दिया और वे केवल इन लघु पत्रिकाओं के लिये ही लिखते रहे. एक दौर ऐसा भी आया जब बडे घरानों की पत्रिकाओं में छपना शर्म की बात समझा जाता था और लघु पत्रिकाओं में छपने का मतलब साहित्यिक समाज की स्वीकृति की गारंटी होता था. आज राष्ट्रीय एवं ग्लोबल कारणों से न तो लघु पत्रिकाएं निकालने वालों के मन में पुराना जोश बाकी है और न ही उनमें छपना पहले जैसी विशिष्टता का अहसास कराता है फिर भी लघु पत्रिकाओं में छपी सामग्री का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है . हिन्दी साहित्य के बहुत सारे विवाद, आन्दोलन, प्रवृत्तियों को निर्धारित करने वाली सामग्री और महान रचनायें इन लघु पत्रिकाओं के पुराने अंकों में समाई हुयीं हैं. इनमें से बहुत सारी सामग्री कभी पुनर्मुद्रित नहीं हुयीं. साहित्य के गंभीर पाठकों एवं शोधार्थियों के लिये इनका ऐतिहासिक महत्व है.
श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय ने इस महत्वपूर्ण खजाने को एक साथ उपलब्ध कराने के लिये अपने प्रांगण में वर्ष 2004-2005 में लघु पत्रिका केन्द्र की स्थापना की है. इस केन्द्र में 250 से अधिक लघु पत्रिकाओं के पूरे अथवा कुछ अंक उपलब्ध हैं. कोई भी शोधार्थी यहाँ पर आकर इस संग्रह की पत्रिकाओं का अध्ययन कर सकता है और आवश्यकता पडने पर फोटोकॉपी ले जा सकता है. पुस्तकालय शोधार्थियों के रुकने की निशुल्क व्यवस्था भी करता है. इस सम्बन्ध में कोई भी सूचना सुधीर शर्मा से टेलीफोन नम्बर- 05466-239615 अथवा 9452332073 से प्राप्त की जा सकती है.
शुक्रवार, 5 सितंबर 2008
शनिवार, 23 अगस्त 2008
वे जो पुस्तकालय पधारे
साहित्यकार-
त्रिलोचन शास्त्री, कमलेश्वर, नामवर सिंह, श्रीलाल शुक्ल,विष्णुकांत शास्त्री,ममता कालिया, रवीन्द्र कालिया, से•रा•यात्री, असगर वज़ाहत, मारकंडे. नीलकांत, शेखर जोशी, दूध नाथ सिंह, नीलाभ, परमानन्द श्रीवास्तव, केदारनाथ सिंह, काशी नाथ सिंह, आबिद सूरती, नमिता सिंह, कुँवर पाल सिंह, हरिपाल त्यागी, रमेश उपाध्याय,अवधेश प्रधान, मधु कांकरिया, लाल बहादुर वर्मा, हरीश चन्द्र अग्रवाल, बद्रीनाथ , बद्री नारायण, गंगा प्रसाद विमल, विकास नाराय़ण राय, शम्भु नाथ ,धनंजय, शम्भु गुप्त, अरविन्द त्रिपाठी, अखिलेश, वीरेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, तेजिन्दर, भारत भारद्वाज,सूरज पालीवाल. राजेन्द्र राजन, अल्पना मिश्र, रति सक्सेना, साधना अग्रवाल, उपेन्द्र कुमार,कमला प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, पी•एन सिंह, श्री प्रकाश शुक्ल, कृष्ण मोहन, शैलेन्द्र प्रताप सिंह, अजय तिवारी,राम कुमार कृषक, रमणिका गुप्ता, वाचस्पति, कंवल भारती, भगवान दास मोरवाल, प्रेमपाल शर्मा,शंकर, अभय,नर्मदेश्वर, प्रियदर्शन मालवीय, जयप्रकाश धूमकेतु, अनिल राय, चौथी राम यादव, निर्मला पुतुल, मृत्युंजय ,प्रह्लाद अग्रवाल, हरिओम, यश मालवीय,रोहिणी अग्रवाल, विवेक निराला. कृपा शंकर चौबे, नीलम शंकर पाण्डे, रोहिताश्व, रवि शंकर पाण्डे , राम कमल राय ,वसंत निर्गुणे और प्रकाश त्रिपाठी .
नाट्य/फिल्म कर्मी-
देवेन्द्र राज अंकुर, शबाना आज़मी ,तीजन बाई, सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ, जितेन्द्र रघुवशी, सचिन तिवारी, मृदुला भारद्वाज, युगल किशोर, विधु खरे, विजय कुमार .सागर सरहदी, संस्कार देसाई, मुन्नी गन्धर्व, गोबिन्द यादव , मीता मिश्रा, शम्शुल इस्लाम, नीलिमा. अभिषेक पंडित, ममता पंडित.
सामाजिक कार्यकर्ता-
आचार्य राममूर्ति, प्रोफेसर ओम प्रकाश मालवीय, प्रोफेसर दीपक मलिक, मुनीज़ा, तीस्ता सीतलवाड, मेधा पाटकर, रूपरेखा वर्मा असगर अली इंजीनियर, अरुन्धती धुरु, सन्दीप पांन्डे, नासिरुद्दीन, प्रोफेसर रमेश दीक्षित, नाईश, शकीला, सर्वेश.
त्रिलोचन शास्त्री, कमलेश्वर, नामवर सिंह, श्रीलाल शुक्ल,विष्णुकांत शास्त्री,ममता कालिया, रवीन्द्र कालिया, से•रा•यात्री, असगर वज़ाहत, मारकंडे. नीलकांत, शेखर जोशी, दूध नाथ सिंह, नीलाभ, परमानन्द श्रीवास्तव, केदारनाथ सिंह, काशी नाथ सिंह, आबिद सूरती, नमिता सिंह, कुँवर पाल सिंह, हरिपाल त्यागी, रमेश उपाध्याय,अवधेश प्रधान, मधु कांकरिया, लाल बहादुर वर्मा, हरीश चन्द्र अग्रवाल, बद्रीनाथ , बद्री नारायण, गंगा प्रसाद विमल, विकास नाराय़ण राय, शम्भु नाथ ,धनंजय, शम्भु गुप्त, अरविन्द त्रिपाठी, अखिलेश, वीरेन्द्र यादव, शिवमूर्ति, तेजिन्दर, भारत भारद्वाज,सूरज पालीवाल. राजेन्द्र राजन, अल्पना मिश्र, रति सक्सेना, साधना अग्रवाल, उपेन्द्र कुमार,कमला प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा, पी•एन सिंह, श्री प्रकाश शुक्ल, कृष्ण मोहन, शैलेन्द्र प्रताप सिंह, अजय तिवारी,राम कुमार कृषक, रमणिका गुप्ता, वाचस्पति, कंवल भारती, भगवान दास मोरवाल, प्रेमपाल शर्मा,शंकर, अभय,नर्मदेश्वर, प्रियदर्शन मालवीय, जयप्रकाश धूमकेतु, अनिल राय, चौथी राम यादव, निर्मला पुतुल, मृत्युंजय ,प्रह्लाद अग्रवाल, हरिओम, यश मालवीय,रोहिणी अग्रवाल, विवेक निराला. कृपा शंकर चौबे, नीलम शंकर पाण्डे, रोहिताश्व, रवि शंकर पाण्डे , राम कमल राय ,वसंत निर्गुणे और प्रकाश त्रिपाठी .
नाट्य/फिल्म कर्मी-
देवेन्द्र राज अंकुर, शबाना आज़मी ,तीजन बाई, सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ, जितेन्द्र रघुवशी, सचिन तिवारी, मृदुला भारद्वाज, युगल किशोर, विधु खरे, विजय कुमार .सागर सरहदी, संस्कार देसाई, मुन्नी गन्धर्व, गोबिन्द यादव , मीता मिश्रा, शम्शुल इस्लाम, नीलिमा. अभिषेक पंडित, ममता पंडित.
सामाजिक कार्यकर्ता-
आचार्य राममूर्ति, प्रोफेसर ओम प्रकाश मालवीय, प्रोफेसर दीपक मलिक, मुनीज़ा, तीस्ता सीतलवाड, मेधा पाटकर, रूपरेखा वर्मा असगर अली इंजीनियर, अरुन्धती धुरु, सन्दीप पांन्डे, नासिरुद्दीन, प्रोफेसर रमेश दीक्षित, नाईश, शकीला, सर्वेश.
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
अखिल भारतीय कथा समारोह
11-12 अक्टूबर 2008- जोकहरा (आज़मगढ)
आयोजन समिति
विभूति नारायण राय
वीरेन्द्र यादव
अखिलेश
अवधेश मिश्र (संयोजक)
लगभग एक शताब्दी के सफर मे हिन्दी कथा साहित्य कई मंजिलों और पडावों से होकर गुजरा है . स्वाधीनता -पूर्व के वर्षों में जहाँ आजादी की चेतना एवँ सामाजिक विसंगतियों ने इसका स्वरूप निर्मित किया वहाँ स्वातंत्रोत्तर काल में इसने प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि और आधुनिकता -बोध की टकराहटों से होकर अपनी राह बनाई . इस समूचे दौर में कथा साहित्य विशेषकर हिन्दी कहानी कई आन्दोलनों से होकर गुजरा है . फतवोँ और नारोँ के शोर से बचते बचाते आज कहानी जिस मुकाम पर है, वह उम्मीदों भरा है . हिन्दी उपन्यास ने भी इस दौर में अपनी हस्तक्षेपकारी उपस्थिति दर्ज करायी है . लेकिन यह भी सच है कि आज भारतीय समाज विकास और विनाश, परिवर्तन और ठहराव, वैश्वीकरण और स्थानिकता की जिस द्वन्द से गुजर रहा है, वह कथा साहित्य के लिये चुनौतियों से भरा है . भारत-विभाजन के बाद अक्टूबर चौरासी , 6 दिसम्बर 1992 एवँ गुजरात 2002 की घट्नाओं से भारतीय समाज आंतरिक विभाजनों से होकर गुजर रहा है . बढती सामाजिक- आर्थिक विषमताओँ एवँ पारंपरिक कुलीनतावाद ने भी विभाजन की इस प्रक्रिया को और भी भेदकारी बनाया है .जहाँ मध्यवर्ग के लिये वैश्वीकरण और मुक्त अर्थ व्यवस्था द्वारा नए अवसरोँ का दावा किया जा रहा है, वही हाशिये का समाज वंचित और निरुपाय होने के लिये अभिशप्त है .विकास के वैकल्पिक माडल एवँ संगठित प्रतिरोध के अभाव मेँ हताशा, विलगाव एवं बेबाकी से उसका दुविधाग्रस्त होना स्वाभाविक ही है .
हमारा कथा साहित्य भारतीय समाज के तेजी से बदलते इस परिदृश्य , सामाजिक संकट एवं दु:स्वप्नों की रचनात्मक अभिव्यक्ति किस तरह कर रहा है ? कहीं हम दूर बैठे का दुख तो नहीं कर रहें जो भारतीय समाज के दु:स्वप्नों , पीडा एवं हताशा को महज उपभोग सामग्री के रूप में इस्तेमाल कर रहा है ? क्या है हमारा रवैय्या उस लेखन के प्रति जो हाशिये के समाज के बीच से हो रहा है ? दलित ,स्त्री और अल्पसंख्यक हमारे सरोकारों में कितना शामिल है ? इन सवालों के बरक्स हिन्दी कथा-आलोचना की क्या भूमिका है ? क्या आलोचना को आस्वादपरकता एवं कुलीनतावाद से मुक्त होने की जरूरत नहीं है ? यदि उपन्यास- कहानी महज साहित्यिक संरचना न होकर सामाजिक सम्र्चना भी है तो क्या आलोचना के नये विकल्प जरूरी नहीं ?
यदि ये प्रश्न आपको कुच विचलित करतें हैं और विचारणीय लगतें हैं तो आइये हम मिल बैठकर इस पर सामूहिक चर्चा करें . हमारी यह चर्चा निम्न तीन शीर्षकों में विभाजित है:
(1) हिन्दी कथा-भूमि और आज का समय
(2) कथा साहित्य और आलोचना का ह्स्तक्षेप
(3) हाशिये के लोग और हिन्दी कथा साहित्य
इस समारोह का आयोजन 11-12 अक्तूबर को श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय के तत्वावधान में किया जायेगा. श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय की स्थापना, आजमगढ सॆ ग़ॉरखपुर जाने वाले मार्ग पर स्थित ग्राम जोकहरा मेँ सन 1993 मेँ पढने की सँस्कृति विकसित करने के लिए की गयी थी ! पिछले डॅढ दशकोँ मेँ यह संस्था देश के एक मह्त्वपूर्ण साँस्कृतिक केन्द्र के रुप मेँ मान्यता प्राप्त कर चुकी हॆ ! दस ह्जार से अधिक पुस्तकों एवँ डेढ सौ से अधिक लघु पत्रिकाऑ के अँको क़ॆ संग्रह वाला यह पुस्तकालय देश के सबसे पिछडे इलाकों में से एक में स्थित हॆ ! अपनी सक्रिय उपस्थिति से इसने न सिर्फ आसपास के इलाके में सामान्य लोगों में पुस्तक पढने की सँस्कृति विकसित की हॆ बल्कि विशेष रुप से समाज के हाशिये पर उपस्थिति दर्ज कराने वाले तबकों. दलितों ,महिलाओं और भूमिहीन परिवार के बच्चों की पुस्तकों तक पहुँच सम्भव बनाई हॆ!
कथा साहित्य पर केन्द्रित इस अखिल भारतीय आयोजन में सक्रिय भागीदारी के लिये आप सादर आमंत्रित हैं . आयोजन समिति आपके समुचित आतिथ्य एवं मार्ग-व्यय की व्यवस्था करेगी .कृपया आयोजन में भागीदारी की सहमति देकर हमें आश्वस्त करें .
आपके सहयोग का आकांक्षी,
(संयोजक)
कृते संयोजन समिति
आयोजन समिति
विभूति नारायण राय
वीरेन्द्र यादव
अखिलेश
अवधेश मिश्र (संयोजक)
लगभग एक शताब्दी के सफर मे हिन्दी कथा साहित्य कई मंजिलों और पडावों से होकर गुजरा है . स्वाधीनता -पूर्व के वर्षों में जहाँ आजादी की चेतना एवँ सामाजिक विसंगतियों ने इसका स्वरूप निर्मित किया वहाँ स्वातंत्रोत्तर काल में इसने प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि और आधुनिकता -बोध की टकराहटों से होकर अपनी राह बनाई . इस समूचे दौर में कथा साहित्य विशेषकर हिन्दी कहानी कई आन्दोलनों से होकर गुजरा है . फतवोँ और नारोँ के शोर से बचते बचाते आज कहानी जिस मुकाम पर है, वह उम्मीदों भरा है . हिन्दी उपन्यास ने भी इस दौर में अपनी हस्तक्षेपकारी उपस्थिति दर्ज करायी है . लेकिन यह भी सच है कि आज भारतीय समाज विकास और विनाश, परिवर्तन और ठहराव, वैश्वीकरण और स्थानिकता की जिस द्वन्द से गुजर रहा है, वह कथा साहित्य के लिये चुनौतियों से भरा है . भारत-विभाजन के बाद अक्टूबर चौरासी , 6 दिसम्बर 1992 एवँ गुजरात 2002 की घट्नाओं से भारतीय समाज आंतरिक विभाजनों से होकर गुजर रहा है . बढती सामाजिक- आर्थिक विषमताओँ एवँ पारंपरिक कुलीनतावाद ने भी विभाजन की इस प्रक्रिया को और भी भेदकारी बनाया है .जहाँ मध्यवर्ग के लिये वैश्वीकरण और मुक्त अर्थ व्यवस्था द्वारा नए अवसरोँ का दावा किया जा रहा है, वही हाशिये का समाज वंचित और निरुपाय होने के लिये अभिशप्त है .विकास के वैकल्पिक माडल एवँ संगठित प्रतिरोध के अभाव मेँ हताशा, विलगाव एवं बेबाकी से उसका दुविधाग्रस्त होना स्वाभाविक ही है .
हमारा कथा साहित्य भारतीय समाज के तेजी से बदलते इस परिदृश्य , सामाजिक संकट एवं दु:स्वप्नों की रचनात्मक अभिव्यक्ति किस तरह कर रहा है ? कहीं हम दूर बैठे का दुख तो नहीं कर रहें जो भारतीय समाज के दु:स्वप्नों , पीडा एवं हताशा को महज उपभोग सामग्री के रूप में इस्तेमाल कर रहा है ? क्या है हमारा रवैय्या उस लेखन के प्रति जो हाशिये के समाज के बीच से हो रहा है ? दलित ,स्त्री और अल्पसंख्यक हमारे सरोकारों में कितना शामिल है ? इन सवालों के बरक्स हिन्दी कथा-आलोचना की क्या भूमिका है ? क्या आलोचना को आस्वादपरकता एवं कुलीनतावाद से मुक्त होने की जरूरत नहीं है ? यदि उपन्यास- कहानी महज साहित्यिक संरचना न होकर सामाजिक सम्र्चना भी है तो क्या आलोचना के नये विकल्प जरूरी नहीं ?
यदि ये प्रश्न आपको कुच विचलित करतें हैं और विचारणीय लगतें हैं तो आइये हम मिल बैठकर इस पर सामूहिक चर्चा करें . हमारी यह चर्चा निम्न तीन शीर्षकों में विभाजित है:
(1) हिन्दी कथा-भूमि और आज का समय
(2) कथा साहित्य और आलोचना का ह्स्तक्षेप
(3) हाशिये के लोग और हिन्दी कथा साहित्य
इस समारोह का आयोजन 11-12 अक्तूबर को श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय के तत्वावधान में किया जायेगा. श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय की स्थापना, आजमगढ सॆ ग़ॉरखपुर जाने वाले मार्ग पर स्थित ग्राम जोकहरा मेँ सन 1993 मेँ पढने की सँस्कृति विकसित करने के लिए की गयी थी ! पिछले डॅढ दशकोँ मेँ यह संस्था देश के एक मह्त्वपूर्ण साँस्कृतिक केन्द्र के रुप मेँ मान्यता प्राप्त कर चुकी हॆ ! दस ह्जार से अधिक पुस्तकों एवँ डेढ सौ से अधिक लघु पत्रिकाऑ के अँको क़ॆ संग्रह वाला यह पुस्तकालय देश के सबसे पिछडे इलाकों में से एक में स्थित हॆ ! अपनी सक्रिय उपस्थिति से इसने न सिर्फ आसपास के इलाके में सामान्य लोगों में पुस्तक पढने की सँस्कृति विकसित की हॆ बल्कि विशेष रुप से समाज के हाशिये पर उपस्थिति दर्ज कराने वाले तबकों. दलितों ,महिलाओं और भूमिहीन परिवार के बच्चों की पुस्तकों तक पहुँच सम्भव बनाई हॆ!
कथा साहित्य पर केन्द्रित इस अखिल भारतीय आयोजन में सक्रिय भागीदारी के लिये आप सादर आमंत्रित हैं . आयोजन समिति आपके समुचित आतिथ्य एवं मार्ग-व्यय की व्यवस्था करेगी .कृपया आयोजन में भागीदारी की सहमति देकर हमें आश्वस्त करें .
आपके सहयोग का आकांक्षी,
(संयोजक)
कृते संयोजन समिति
थियेटर ने बदली औरतों की जिन्दगी
1993 से लेकर 2004 तक की यात्रा में जो खास कमी बडी शिद्दत से महसूस की जाती थी, वह थी लड्कियों और महिलाओं की पुस्तकालय की गतिविधियों मे बहुत कम भागीदारी ! 2004 में अचानक एक घटना ने पूरा परिदृश्य बदल दिया ! सब कुछ बिना किसी सोची समझी रणनीति के तहत हुआ ! राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली ने मई 2004 मेँ पहली बार एक महीने का ट्रेनिंग कम प्रोडक्शन वर्कशाप पुस्तकालय परिसर में आयोजित किया ! "पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस पिछडे गाँव में नाटक करने के लिये लड्कियाँ कहाँ से मिलेंगी?" प्रशिक्षिका विधु खरे ने लखनऊ से जोकहरा जाते हुये हैरानी से पूछा ! विधु की हैरानी निराधार भी नहीं थी ! शुरू के तीन दिन एक भी लडकी कार्यशाला मेँ भाग लेने नहीं आयी ! लेकिन विधु के थोडे से प्रयास के बाद जो कुछ हुआ वह अकल्पनीय था ! अलग अलग उम्र जातियों एवँ पारिवारिक पृष्ठभूमि की लडकियों ने जब आना शुरु किया तो ऐसा लगा कि कोई बाँध टूट गया हो ! सचमुच बाँध ही तो टूटा था ! तरह तरह की कुँठाओं और वर्जनाओं की मारी इन लडकियों को एक बार जब अपनी कल्पना के पँख पसारने का मौका मिला तो वे उड चलीं उस सम्मोहक और रंग बिरंगी दुनियाँ की तरफ जिसमे अभी तक उनका प्रवेश वर्जित था ! वर्कशाप मे तीस से अधिक प्रतिभगियों के भाग लेने की गुंजायश नहीँ थी किंतु मना करते करते भी विधु को 47 लडके लडकियों को इसमे दाखिल करना पडा ! नाटक की यह कार्यशाला लडकियो और आसपास के ग्रामीण जीवन के अनुभव संसार में एक भूचाल की तरह थी ! पूर्वी उत्तर प्रदेश देश के अन्य पिछडे ग्रामीण इलाकोँ की तरह लैँगिक और जातीय भेद भाव से ग्रस्त है ! इस वर्कशाप से पहले यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि लडके लडकियाँ , खास तौर से दलित और सवर्ण पृष्ठभूमि के , एक साथ हाथ से हाथ मिलाकर नाचेंगे ,गायेंगे और अभिनय करेंगे ! इस वर्कशाप में विधु खरे के निर्देशन में तैयार लक्ष्मी नारायण मिश्र का नाटक सरयू की धार, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के रंगमंच पर जश्नेबचपन के तहत खेला गया !
जोकहरा से दिल्ली की यात्रा ने भी भाग लेने वाले कलाकारोँ की जिन्दगी को बदला ! कलाकारों में आधे से अधिक की ये पहली रेल यात्रा थी और दो एक को छोडकर बाकी सभी पहली बार दिल्ली जा रहे थे ! विधु खरे ने यात्रा के दौरान अलग अलग जातियों के बच्चों द्वारा लाया गया भोजन एक मे मिला दिया और बाद मे सबने उसे मिल बाँट कर खाया !महानगरों के लिये तो यह एक सामान्य सी स्थिति हो सकती है किंतु गलीज़ वर्ण व्यवस्था के पंक में बजबजाते समाज के लिये यह एक बडी परिवर्तन कारी घटना थी !
थियेटर के इस पहले वर्कशाप ने ही औरतोँ की जिँदगी मेँ निर्णायक हस्तक्षेप प्रारम्भ कर दिया ! वर्कशाप के पहले बहुत कम संख्या मेँ लडकियाँ /महिलाएँ पुस्तकालय मेँ आतीँ थीँ , जो आतीँ भी थी वे सहमी ,सकुचाई और अनामंत्रित सी लगती थीँ ! वर्कशाप समाप्त होने के बाद उनकी संख्या तो बढी ही उनके आत्मविश्वास का स्तर भी बढ गया ! बढा हुआ आत्मविश्वास उनके चलने, बोलने और अधिकार के साथ पुस्तकालय का उपयोग करने मे झलकने लगा !
मई 2004 के इस पहले वर्कशाप के बाद पुस्तकालय ने प्रति वर्ष तीन ट्रेनिंग कम प्रोडक्शन वर्कशाप लगाने का फैसला किया और इस अभियान मे उसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली, उत्तर मध्य सांस्कृतिक केन्द्र इलाहाबाद , भारतेन्दु नाट्य अकादमी लखनऊ तथा इप्टा का सहयोग मिलता रहा है !
यदि आपको देखना हो कि थियेटर कैसे औरतोँ की जिन्दगी मेँ परिवर्तनकारी हस्तक्षेप करता है तो आपको श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकलय के अनुभवोँ का देखना चहिये !
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
मिसाल बेमिसाल —उत्तर प्रदेश/ जोकहरा पुस्तकालय- इंडिया टुडे- 10 जनवरी 2005
पढने के अवसर मुहैया कराने के अलावा अन्धविश्वास उन्मूलन तक में योगदान दे रहा एक अनूठा पुस्तकालय
•कुमार हर्ष
उत्तर प्रदेश में आज़मगढ से गोरखपुर जाने वाले रास्ते पर बसे कोई 7,000 की आबादी वाले जोकहरा गाँव में 1993 में बना श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय दशक भर में ही इलाके में सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव की ठोस जमीन तैयार करने में लगा है . लगभग 9,000 पुस्तकों वाली इस लाइब्रेरी में सुबह 6 बजे से शाम 8 बजे तक पडोसी गाँवों से भी लोग आतें हैं. इसके सचिव शेषनाथ राय बतातें हैं, "कई पाठक ते 13-14 किलोमीटर साइकिल चलाकर आतें हैं." शहर में कर्फ्यू और तबादला सरीखे उपन्यासों के लिए चर्चित और इलाहाबाद में जी आर पी के पुलिस महानिदेशक विभूति नारायब राय लाइब्रेरी की स्थापना के शुरूआती दिनों के बारे में बतातें हैं," यह गाँव तब जातिगत व्यवस्था और सांस्कृतिक दरिद्रता से ग्रस्त गाँवों की तरह ही था. बाहर से आने पर बेचैनी और छटपटाहट महसूस होती थी." इसी बेचैनी ने विभूति को गांव में पढने की संस्कृति करने के लिए लाइब्रेरी खोलने का रास्ता दिखाया. उन्होंने अपने लेखक मित्रों से माँगी 1,000 किताबें लेकर गांव के जूनियर हाई स्कूल के छोटे-से कमरे में इसकी नींव रखी. गांव के सेतु यादव और दुर्बल यादव ने अपनी जमीन नाममात्र के मूल्य पर लाइब्रेरी को दे दी और बकौल विभूति, "इस आन्दोलन के लिये वह सबसे अहम योगदान है." इस बीच विभूति की खतो-किताबत सुधीर शर्मा से हुई, जो अवैध हेरोइन रखने के आरोप में गोवा की सेंट्रल जेल में साढे दस साल की सजा काट रहे थे. छह राज्यों की जेलों में रहे शर्मा धर्मयुग से लेकर साप्ताहिक हिन्दुस्तान और गोर्की से लेकर नामवर सिंह तक की किताबों में दिलचस्पी दिखाते थे. उस दौरान उन्होंने विभूति की किताब किस्सा लोकतंत्र को पढकर उन्हें खत लिखा. जवाब के साथ उन्हें कुछ और किताबें भी मिलीं, जो जेलर ने उन्हें नहीं दीं. पता चलने पर राय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. पाबंदी खत्म हुई तो शर्मा से मिलने जेल गये, शर्मा कह्तें हैं,"यकीन नहीं हुआ कि इतना बड अफसर मुझसे मिलने आयेगा." इससे उनकी जिंदगी में ऐसा मोड आ गया कि सजा पूरी करने के बाद वे इस लाइब्रेरी के संचालन के साथ -साथ सिलाई-कढाई, कम्प्यूटर प्रशिक्षण के अलावा खेलकूद की गतिविधियों का संयोजन करने में अत्याधिक रम चुकें हैं.
लाइब्रेरी ने अंधविश्वास उन्मूलन से लेकर रंग प्रशिक्षण और "पत्रकारिता और सांप्रदायिकता" से लेकर "पाठक-साहित्यकार संवाद" सरीखे दर्जनों आयोजनों के जरिये सांस्कृतिक परिवर्तन का सिलसिला जारी रखा है. बकौल राय, "जल्दी ही हम यहां लघु पत्रिका केन्द्र , एक लघु संस्कृति केन्द्र तथा सांप्रदायिकता पर काम करने वाले शोधार्थियों के लिये इंटरनेट सुविधा युक्त डक्यूमेंटेशन सेंटर ऑन कम्यूनल कांफ्लिक्ट" स्थापित करने जा रहें हैं." लाइब्रेरी की विजिटर्स बुक में देश के नामचीन साहित्यकारों की टिप्पणियाँ दर्ज हैं. इस साल 1 अक्टूबर को मशहूर कार्टूनिस्ट , फिल्मकार, लेखक आबिद सूरती ने अपने अमर पात्र 'डब्बू जी" के कार्टून के बगल में लिखा है, "यहाँ आना आसान है, पर निकलना बहुत मुस्किल," सच ही तो है.
सवाल पूछतीं हैं औरतें
अधेड प्रभावती ने कच्ची उम्र में विवाह के बाद सिर्फ एक चीज सीखी थी- बिना कोई सवाल पूछे अपने शराबी पति भागवत का लात जूता और सास ससुर के ताने सहना ! भागवत अच्छा ट्रैक्टर मैकेनिक है और सिर्फ उतनी देर काम करता है जिसमें उसे शराब पीने भर को पैसे मिल जायँ ! उसकी इस कमजोरी का फायदा उठा कर अक्सर बडे किसान उसे एक पव्वा देशी शराब पिला कर बिना किसी मजदूरी के उससे अपना ट्रैक्टर ठीक करातें हैं ! प्रभावती ने सवाल पूछने का महत्व तब समझा जब उसकी मुलाकात कुसुम और पुष्पा से हुयी ! आक्सफैम ने पुस्तकालय को महिला हिंसा के खिलाफ अभियान चलाने के लिये एक प्रोजेक्ट दिया है जिसमें मुख्य भूमिका कुसुम और पुष्पा निभा रहीं हैं ! 15 गाँवों में चलने वाले इस प्रोजेक्ट मेँ प्रभावती का गाँव सहनूपुर भी है ! प्रभावती ने पुस्तकालय पर आयोजित महिला विमर्शों में भाग लेते हुये एक नयी चीज सीखी —प्रश्न पूछना और अपने खिलाफ होने वाली हिंसा को चुपचाप न स्वीकारना ! एक दिन भागवत की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं जब उसका हवा में उठा शराबी हाथ प्रभावती की मजबूत मुट्ठियोँ में झूल गया ! प्रभावती पुस्तकालय के कार्यक्रमों में बताते हुये खिलखिलाती है कि अब भागवत उसपर हाथ उठाते दस बार सोचता है क्योँकि उसे भरोसा नहीं है कि प्रभावती पलट कर वार नहीं करेगी !
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
Excerpts from the Blog-http//www. katsu-katsu.blogspot.com
From a life of drugs and crime to a life of literacy
Sunday, October 14, 2007
I had a great opportunity to visit Shri Ramanand Saraswati Pustkalaya, a non-governmental organization (NGO) which is located in Jokehara, a remote village in Azamgarh, Uttar Pradesh (Approximately 3.5 hours from Benares). I met with the two men who have really propelled a vision to empower women and children and to breakdown gender bias and caste bias. It's a pretty amazing place and the story upon which it was founded is even more astounding. It's got a tough cop, a reformed convict, love, loss & betrayal, drugs & mafia warlords and... the silver lining is... empowerment of poor rural women and children through literacy, arts and dedication! Vibhuti Narain Rai, is the head of the organization is a Vice Director General of Police for the state of UP. He's basically the second in command and exudes authority and machismo, but when he smiles, one can see the corners of his eyes wrinkle behind the dark Ray Bans (think Tom Cruise in Top Gun). He is a dedicated man, visiting the village at least twice a month from his post in Lucknow. He introduced us to Sudhir Sharma, the famous librarian who has brought literacy to Jokehara and 10 neighbouring villages. Sudhir is famous b/c of his fight for the right to read books while in a Goa jail. His only request was to read, and as such he developed a relationship with writers, one of whom was Vice Director General Rai. After prison officials returned books to the senders, Sudhir smuggled a letter out to Mr. Rai and thus began the court case which went all the way up to the Goa High Court. In the end Sudhir was not only able to receive books, but he went on to establish a library in the jail. upon release Mr. Rai offered him the opportunity to become the resident librarian for his NGO... and now... the story really takes off. The library was the seed which germinated an entire village to throw off their skeptical concerns that reading was important and a valuable skill set and he inspired them to proffer what little they had to build a community centre. The poorest man of the village gave a parcel of valuable farm land, the stone mason, 2 bags of concrete and so forth... those who had no materials to offer, gave their labour to help build this centre. It is truly inspiring. Now, the community centre hosts a sewing centre to allow women to develop a marketable skill set that will allow them to earn approximately 30-40 rupees a day ($0.80-$1.00) and continue to feed their families. From the sewing centre spawned a computer centre where community members can come to learn basic computer skills and then apply to computer programs in nearby cities to further their skills. The most powerful story though, is the introduction of community theatre. Here the women are rallied to join and write their own play and then perform in it. It's so wonderful because the women learn how to command presence through physical body movement and oratorial skills as they must project their voices. There are of course many obstacles that these young women face when they begin to realize that they are entitled to equal treatment and greater opportunities -- it is a reality that all such organizations face. With knowledge comes power, and with power there is a threat of change to those who currently dominate. Sometimes "real change" may seem futile, but I think the lesson which must be gleaned from this is that one seed can foster great hope and change an entire landscape.Lee Koo
Sunday, October 14, 2007
I had a great opportunity to visit Shri Ramanand Saraswati Pustkalaya, a non-governmental organization (NGO) which is located in Jokehara, a remote village in Azamgarh, Uttar Pradesh (Approximately 3.5 hours from Benares). I met with the two men who have really propelled a vision to empower women and children and to breakdown gender bias and caste bias. It's a pretty amazing place and the story upon which it was founded is even more astounding. It's got a tough cop, a reformed convict, love, loss & betrayal, drugs & mafia warlords and... the silver lining is... empowerment of poor rural women and children through literacy, arts and dedication! Vibhuti Narain Rai, is the head of the organization is a Vice Director General of Police for the state of UP. He's basically the second in command and exudes authority and machismo, but when he smiles, one can see the corners of his eyes wrinkle behind the dark Ray Bans (think Tom Cruise in Top Gun). He is a dedicated man, visiting the village at least twice a month from his post in Lucknow. He introduced us to Sudhir Sharma, the famous librarian who has brought literacy to Jokehara and 10 neighbouring villages. Sudhir is famous b/c of his fight for the right to read books while in a Goa jail. His only request was to read, and as such he developed a relationship with writers, one of whom was Vice Director General Rai. After prison officials returned books to the senders, Sudhir smuggled a letter out to Mr. Rai and thus began the court case which went all the way up to the Goa High Court. In the end Sudhir was not only able to receive books, but he went on to establish a library in the jail. upon release Mr. Rai offered him the opportunity to become the resident librarian for his NGO... and now... the story really takes off. The library was the seed which germinated an entire village to throw off their skeptical concerns that reading was important and a valuable skill set and he inspired them to proffer what little they had to build a community centre. The poorest man of the village gave a parcel of valuable farm land, the stone mason, 2 bags of concrete and so forth... those who had no materials to offer, gave their labour to help build this centre. It is truly inspiring. Now, the community centre hosts a sewing centre to allow women to develop a marketable skill set that will allow them to earn approximately 30-40 rupees a day ($0.80-$1.00) and continue to feed their families. From the sewing centre spawned a computer centre where community members can come to learn basic computer skills and then apply to computer programs in nearby cities to further their skills. The most powerful story though, is the introduction of community theatre. Here the women are rallied to join and write their own play and then perform in it. It's so wonderful because the women learn how to command presence through physical body movement and oratorial skills as they must project their voices. There are of course many obstacles that these young women face when they begin to realize that they are entitled to equal treatment and greater opportunities -- it is a reality that all such organizations face. With knowledge comes power, and with power there is a threat of change to those who currently dominate. Sometimes "real change" may seem futile, but I think the lesson which must be gleaned from this is that one seed can foster great hope and change an entire landscape.Lee Koo
Profile of the Organisation
1. Name of the organisation Sri Ramanand Saraswati Pustkalaya2. Registration No./Date/Place of Registration- 1019/93-94/4-1-19943. Place of Registration- Azamgarh4.FCRA No./Date of Issue- II/ 21022/73(169)/ 2005 / ,Reg. No.- 136250046 / ,Date-- 09/ 08 / 054.Address-- Sri Ramanand Saraswati Pustkalaya, Jokehara, Azamgarh, 2761365.Phone Number/Fax Number/E-mail-05466-239615,05466-239448 , 9452332073 / srsp1993@yahoo.co.in/ sriramanandsaraswatipustkalaya.blogspot.com
6.Name of Responsible Individual ( Name/Designation/Phone Number / E-mail)Sri Shesh Nath Rai / Secretary / srsp1993@ yahoo.co.in
7.Organizational Structure-
7-1. Year of Establishment- 1993-1994
7-2. Nature of the Organization- Social, cultural and educational
7-3. Number of Branches, Field Offices and their location nil
8.Purpose of Establishment, Vision and/ Mission Statement
Vision:-
SRSP intends to combat two major biases of the Rural India related to cast and gender which may help creation of a just and equitable social order. It is committed to the goal of enabling Rural India to live life of dignity and respect.
Mission:-
SRSP works for the sustainable social and economic empowerment of women and dalits. The focus is on rights based approach through which these marginalized segments of the Rural India are sensitized about the dignity of their human existence. The tools of this endeavor are education, capacity building by skill up gradation, exposure to the laws of the land and international conventions and creative activities like theatre, music, and painting. Efforts are also made to involve these potential groups in such efforts like water conservation, forestry and preservation of oral and written folk traditions which may enrich their life. Special attention is paid to the improvement of their health and hygiene.
9. Main Activities of the Organization- During more than one decade of its existence SRSP has turned into a prominent cultural centre of the country. Initially started with an aim to promote the culture of book reading, very soon it got involved in many other activities of community development. It took a moderate project of adult literacy with an aim of making every body in the village Jokehara literate and this target was achieved in three years. To sensitise villagers on gender and dalit issues many discourses were organised in which social activists like Teesta Setalwad, Shabana Azmi, Medha Patkar, Asgar Ali Engineer, and Acharya Ram Murti along with the hosting of writers, playwrights, poets, academicians, photographers and film and theatre critics. It was believed that the exposure to such a wide variety of experiences and ideas, the youth of Jokehara and its neighbouring villages would be able to come out of their caste and gender constraints.
Jokehara and the villages around it are like any other village of eastern Uttar Pradesh where caste and gender lines are very pronounced. SRSP, since its inception, has tried to mobilise the marginalised sections, specially women and dalits, against the social odds. It was not at all an easy task.. SRSP, had adopted a strategy to motivate dalits to challenge the system which denied them dignity and equality without provoking and inviting hostilities from the upper castes. SRSP had appointed a chamar, lowest in the caste system, as librarian. Initially this led to very strange situations. For example the librarian would not sit before an upper caste reader or an upper caste reader may find it humiliating to ask the librarian to help him in searching a book. During functions when their were visitors from outside the librarian would feel hesitant in sitting with them at the dining table and even if he sat, there was always a posibility that he would be ridiculed by an upper caste person. Gradually the situation changed and the dalit librarian was accepted as equal.
9. a. Theatre Brings Perceptible Changes In The Life Of WomenSocial change through cultural interventions and theatrical activities helped a lot in bringing a perceptible change in the situation. The beginning was not a conscious effort. National School of Drama, New Delhi organised its first training cum production workshop in December 2003 at SRSP. Initially everyone was sceptical about the response of women to the workshop but to everybody's surprise large number of girls participated in the camp. For them it was like freedom from mundane, routine chores of a male dominated family life where they had very little elbow space for joy and creativity. It was another departure from the caste guided behavioural pattern. Boys and girls of different castes used to spend the whole day together singing, dancing and rehearsing. Initially there was a mental barrier among them but slowly and unknowingly it disappeared and they started to share their midday meal as well. The first theatre camp changed many things in the life of village Jokehara. Women started visiting library in more numbers. There was a perceptible change in the confidence level and they started participating more freely in the discussions organised by the library. Since then many theatre camps with the support of National School Of Drama, New Delhi, Bhartendu Natya Academy, Lucknow and North Central Zone Cultural Centre, Allahabad have been organised and it has further cemented the process.
9. b. Empowerment Through Income Generating Programmes
SRSP is actively engaged in economic empowerment of local community and developing their income-generation capacity. It is running two centres under the Community Polytechnic Scheme of government of India. One centre is imparting training in typing and shorthand and the other is engaged in stitching and embroidery. The objective of the programme is to make local young boys and girls learn vocational skills and become self dependent. These vocational courses have helped villagers, especially women and dalits, in developing their confidence. The library is also running a computer training centre. The organisation believes that a good number of these trainees will soon be able to start their own enterprises.
The organisation had successfully run a project of rearing honeybee which was supported by CAPART. Under this programme 50 economically backward farmers have been given honey boxes with other accessories. The organisation has given them training and provides them with regular support. The project is expected to give them a regular and sustainable source of livelihood. With the completion of this project , more beneficiaries are expected to be covered under this programme and the project may be replicated in other areas. At present SRSP is running a training course for motorcycle and scooter mechanics.30 young boys , mostly from the marginalised sections are enrolled in the programme. Nehru Yuva Kendra, New Delhi is supporting it. National Bank for Agriculture and Rural Development (NABARD) is supporting SRSP in its endeavour to organise grass root women self help groups. Many such groups have been organised so far which are not only sensitising their members about their rights and dignity as a person but also upgrading their skills through various training inputs so that they can earn a decent livelihood. These self help groups have linkages with banks. Efforts are on to develop some of these into small level entrepreneurs.
9. c. Physical Fitness and Sports Activities-
Physical fitness is the strength of any community. SRSP has started a volleyball nursery where about 80 boys of different age groups are learning the game under the watchful eyes of a trained coach. SRSP has also established a gymnasium which provides the youth of the area an opportunity to exercise and maintain their physical fitness.
9. d. Our Partners-
Over the years SRSP has not only diversified its activities, it has also established fruitful relationships with institution/organisations like National Book Trust, National School of Drama, Sahitya Academy, Ministry of Culture-Government Of India, North Central Zone Cultural Centre, CAPART, Raja Ram Mohan Roy Library Trust, Ministry of Health and Family Welfare - Govt of India, Ministry of Human Resources Development, Government of India, Nehru Yuva Kendra, OXFAM and NABARD.
6.Name of Responsible Individual ( Name/Designation/Phone Number / E-mail)Sri Shesh Nath Rai / Secretary / srsp1993@ yahoo.co.in
7.Organizational Structure-
7-1. Year of Establishment- 1993-1994
7-2. Nature of the Organization- Social, cultural and educational
7-3. Number of Branches, Field Offices and their location nil
8.Purpose of Establishment, Vision and/ Mission Statement
Vision:-
SRSP intends to combat two major biases of the Rural India related to cast and gender which may help creation of a just and equitable social order. It is committed to the goal of enabling Rural India to live life of dignity and respect.
Mission:-
SRSP works for the sustainable social and economic empowerment of women and dalits. The focus is on rights based approach through which these marginalized segments of the Rural India are sensitized about the dignity of their human existence. The tools of this endeavor are education, capacity building by skill up gradation, exposure to the laws of the land and international conventions and creative activities like theatre, music, and painting. Efforts are also made to involve these potential groups in such efforts like water conservation, forestry and preservation of oral and written folk traditions which may enrich their life. Special attention is paid to the improvement of their health and hygiene.
9. Main Activities of the Organization- During more than one decade of its existence SRSP has turned into a prominent cultural centre of the country. Initially started with an aim to promote the culture of book reading, very soon it got involved in many other activities of community development. It took a moderate project of adult literacy with an aim of making every body in the village Jokehara literate and this target was achieved in three years. To sensitise villagers on gender and dalit issues many discourses were organised in which social activists like Teesta Setalwad, Shabana Azmi, Medha Patkar, Asgar Ali Engineer, and Acharya Ram Murti along with the hosting of writers, playwrights, poets, academicians, photographers and film and theatre critics. It was believed that the exposure to such a wide variety of experiences and ideas, the youth of Jokehara and its neighbouring villages would be able to come out of their caste and gender constraints.
Jokehara and the villages around it are like any other village of eastern Uttar Pradesh where caste and gender lines are very pronounced. SRSP, since its inception, has tried to mobilise the marginalised sections, specially women and dalits, against the social odds. It was not at all an easy task.. SRSP, had adopted a strategy to motivate dalits to challenge the system which denied them dignity and equality without provoking and inviting hostilities from the upper castes. SRSP had appointed a chamar, lowest in the caste system, as librarian. Initially this led to very strange situations. For example the librarian would not sit before an upper caste reader or an upper caste reader may find it humiliating to ask the librarian to help him in searching a book. During functions when their were visitors from outside the librarian would feel hesitant in sitting with them at the dining table and even if he sat, there was always a posibility that he would be ridiculed by an upper caste person. Gradually the situation changed and the dalit librarian was accepted as equal.
9. a. Theatre Brings Perceptible Changes In The Life Of WomenSocial change through cultural interventions and theatrical activities helped a lot in bringing a perceptible change in the situation. The beginning was not a conscious effort. National School of Drama, New Delhi organised its first training cum production workshop in December 2003 at SRSP. Initially everyone was sceptical about the response of women to the workshop but to everybody's surprise large number of girls participated in the camp. For them it was like freedom from mundane, routine chores of a male dominated family life where they had very little elbow space for joy and creativity. It was another departure from the caste guided behavioural pattern. Boys and girls of different castes used to spend the whole day together singing, dancing and rehearsing. Initially there was a mental barrier among them but slowly and unknowingly it disappeared and they started to share their midday meal as well. The first theatre camp changed many things in the life of village Jokehara. Women started visiting library in more numbers. There was a perceptible change in the confidence level and they started participating more freely in the discussions organised by the library. Since then many theatre camps with the support of National School Of Drama, New Delhi, Bhartendu Natya Academy, Lucknow and North Central Zone Cultural Centre, Allahabad have been organised and it has further cemented the process.
9. b. Empowerment Through Income Generating Programmes
SRSP is actively engaged in economic empowerment of local community and developing their income-generation capacity. It is running two centres under the Community Polytechnic Scheme of government of India. One centre is imparting training in typing and shorthand and the other is engaged in stitching and embroidery. The objective of the programme is to make local young boys and girls learn vocational skills and become self dependent. These vocational courses have helped villagers, especially women and dalits, in developing their confidence. The library is also running a computer training centre. The organisation believes that a good number of these trainees will soon be able to start their own enterprises.
The organisation had successfully run a project of rearing honeybee which was supported by CAPART. Under this programme 50 economically backward farmers have been given honey boxes with other accessories. The organisation has given them training and provides them with regular support. The project is expected to give them a regular and sustainable source of livelihood. With the completion of this project , more beneficiaries are expected to be covered under this programme and the project may be replicated in other areas. At present SRSP is running a training course for motorcycle and scooter mechanics.30 young boys , mostly from the marginalised sections are enrolled in the programme. Nehru Yuva Kendra, New Delhi is supporting it. National Bank for Agriculture and Rural Development (NABARD) is supporting SRSP in its endeavour to organise grass root women self help groups. Many such groups have been organised so far which are not only sensitising their members about their rights and dignity as a person but also upgrading their skills through various training inputs so that they can earn a decent livelihood. These self help groups have linkages with banks. Efforts are on to develop some of these into small level entrepreneurs.
9. c. Physical Fitness and Sports Activities-
Physical fitness is the strength of any community. SRSP has started a volleyball nursery where about 80 boys of different age groups are learning the game under the watchful eyes of a trained coach. SRSP has also established a gymnasium which provides the youth of the area an opportunity to exercise and maintain their physical fitness.
9. d. Our Partners-
Over the years SRSP has not only diversified its activities, it has also established fruitful relationships with institution/organisations like National Book Trust, National School of Drama, Sahitya Academy, Ministry of Culture-Government Of India, North Central Zone Cultural Centre, CAPART, Raja Ram Mohan Roy Library Trust, Ministry of Health and Family Welfare - Govt of India, Ministry of Human Resources Development, Government of India, Nehru Yuva Kendra, OXFAM and NABARD.